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गीता के ये श्लोक हैं जीवन के सारांश



By  हरि देव     January 22, 2019    Labels: 
भारत की सनातन संस्कृति में श्रीमद्भगवद्गीता न केवल पूज्य बल्कि अनुकरणीय भी है। इस ग्रंथ में उल्लिखित उपदेश इसके 18 अध्यायों में लगभग 720 श्लोकों में हैं। श्रीमद्भगवद्गीता दुनिया के वैसे श्रेष्ठ ग्रंथों में है, जो न केवल सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है, बल्कि कही और सुनी भी जाती है। कहते हैं जीवन के हर पहलू को गीता से जोड़कर व्याख्या की जा सकती है। भोपाल के जाने माने ज्योतिषाचार्य और राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में प्रोफेसर प्रद्युम्न पाठक ने गीता के 5 ऐसे श्लोकों का महत्त्व बताया जो हर मनुष्य का जीवन बदल सकते हैं। आइए हम आपको बताते हैं इन श्लोकों का मतलब...

 नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥ 

(द्वितीय अध्याय, श्लोक 23) इस श्लोक का अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।)

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्। तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥ 

(द्वितीय अध्याय, श्लोक 37) इस श्लोक का अर्थ है: यदि तुम (अर्जुन) युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे... इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन), और निश्चय करके युद्ध करो। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने वर्तमान कर्म के परिणाम की चर्चा की है, तात्पयज़् यह कि वर्तमान कर्म से श्रेयस्कर और कुछ नहीं है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिभज़्वति भारत:। अभ्युत्थानमधमज़्स्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ 

(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7) इस श्लोक का अथज़् है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धमज़्संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥ 

(चतुथज़् अध्याय, श्लोक 8) इस श्लोक का अर्थ है: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कमिज़्यों के विनाश के लिए... और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं। इस प्रसिद्ध शक्तिपीठ में नहीं है देवी की कोई मूर्ति होती है श्रीयंत्र की पूजा

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकमज़्णि॥ 

(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47) इस श्लोक का अर्थ है: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं... इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो। (यह श्रीमद्भवद्गीता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है, जो कर्मयोग दर्शन का मूल आधार है।)

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